“हाल ही के दिनों में आपने मूनलाइटिंग की चर्चा सुनी होगी। क्या यह सच में नियोक्ता के साथ धोखा है या कर्मचारियों के लिए उचित है।”
कंपनियों का कहना है कि जब कर्मचारी बाहर काम करता है तो ना सिर्फ कंपनी के उत्पादन पर उसका असर होता है बल्कि वो उनके ही प्रतिद्वंदियों को फायदा पहुँचा रहे होते हैं। वहीं, कर्मचारियों की इस पर राय है कि जब कंपनियों के सीईओ अलग-अलग संस्थानों के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल होते हैं तो क्या वह ‘मूनलाइटिंग’ नहीं है?
एक तर्क यहाँ यह भी सामने आता है कि बड़े शहरों में रहते हुए जीवनयापन के लिए कम वेतन पा रहे कर्मचारी जॉब के बाद दूसरे विकल्प के जरिए कमाई करते हैं। इस तर्क की कमी यह है कि मूनलाइटिंग के सबसे ज्यादा मामले कोरोनाकाल के दौरान आए जब कर्मचारी किसी बड़े शहर में नहीं अपने घर में बैठकर काम कर रहे थे।
‘मूनलाइटिंग’ संस्था के साथ धोखा क्यों है? जबकि कर्मचारी अपने हिस्से का काम करने के बाद ही दूसरी संस्था में सेवाएं दे रहा है। देश में इसके मामले क्यों बढ़ रहे हैं?
एक संस्था में 9-10 घंटे देने के बाद भी अगर कोई बाहर काम कर रहा है तो उसके दो ही कारण हो सकते हैं – या तो कर्मचारी गलत जगह पर है। उसे वह काम नहीं मिल पा रहा है जिसकी उसे चाह है और उसे ही वह बाहर ढूँढ रहा है या फिर यह शौकिया है। यानी, सिर्फ ऊपरी कमाई के लिए वर्तमान संस्था के साथ धोखा!
अगर कोई गलत जगह है तो उसे ‘मूनलाइटिंग’ की जगह अपने लिए उस संस्था का चुनाव करना चाहिए जो उसकी रुचि के अनुरूप हो। सोशल मीडिया पर आजकल दो चीजों का चलन देखा जा रहा है, वह हैं- ट्रैवलिंग और इस से भी ज्यादा 9-5 जॉब से बाहर निकलकर समय पूर्व सेवानिवृति का।
मिलेनियल या जेन-जेड (जेन-ज़ी) पीढ़ी के लिए ‘योलो’ यानी ‘यू ओनली लिव वन्स’ जीवन मंत्र की तरह काम करता है और इस सूची में सैर-सपाटा सबसे ऊपर आता है। इसे स्पॉन्सर करने के लिए वे साइड-जॉब, यानी मूनलाइटिंग का सहारा लेते हैं।
दूसरा, युवा वर्ग के बीच 9 से 5 की जॉब यानी फुल टाइम वर्क या कॉरपोरेट जॉब को लेकर ऐसी धारणा विकसित है कि वह इसे जीवनयापन का साधन मानने के बजाए जीवन जीने में बंधन ज्यादा मानते हैं।
कॉरपोरेट जॉब युवा वर्ग के बीच नकारात्मक शब्द है, जिससे वह जल्द से जल्द बाहर निकलना चाहता है और यहीं मूनलाइटिंग का सिद्धांत सामने आता है। युवा वर्ग चाहता है कि अपने शौक के जरिए वह पार्ट-टाइम जॉब तो करे ही, साथ ही धीरे-धीरे फुल-टाइम जॉब की जगह उसे प्रतिस्थापित भी कर दे।
यही संस्कृति व्यावसायिक संस्थाओं को नुकसान पहुँचा रही है। युवा वर्ग भले ही, कॉरपोरेट जॉब को उनकी स्वतंत्रता में बाधा माने लेकिन, सच तो यही है कि यह निजी संस्थान देश के 31 मिलियन से ज्यादा लोगों को रोजगार उपलब्ध करवा रहे हैं।
व्यावसायिक क्षेत्र में कम वेतन एक वजह बनती है कर्मचारियों द्वारा कार्यस्थल बदलने की लेकिन, मूनलाइटिंग के लिए यह कोई कारण नहीं है। देश में सुप्रशिक्षित कार्यबल की कमी है। शायद यही बड़ा कारण है कि अंडर-पेड (अपनी योग्यता से कम वेतन पाना) होने पर कर्मचारी वर्ग प्रशिक्षण लेकर बेहतर पद पर जाने की बजाए समान कौशल के जरिए दो-तीन जगह से थोड़ा-थोड़ा कमाकर जीवनयापन करना ज्यादा आसान समझ रहा है।
हाल ही के परिप्रेक्ष्य में देखें तो टीसीएस जैसी कंपनी अपने कर्मचारियों के लिए गिग-आधारित प्लेटफॉर्म विकसित कर रही हैं। अगर ऐसे कार्यक्रमों को देखें जहां संस्थान द्वारा कदम आगे बढ़ाया जा रहा है तो क्या कर्मचारियों से ईमानदारी की उम्मीद करना उचित नहीं?
मूनलाइटिंग व्यावसायिक संस्थानों को तो नुकसान पहुँचा ही रहा है, साथ ही साथ यह देश के उस वर्ग के साथ भी धोखा है, जिन्हें इस लिए कमाई का साधन नहीं मिल पा रहा क्योंकि किसी कार्यरत व्यक्ति ने उसके हिस्से का काम भी कर दिया है। देश में जहाँ बेरोजगारी दर 6% से ऊपर है, वहाँ मूनलाइटिंग को कहाँ तक जायज ठहराया जा सकता है?